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छालों भरा सफ़र / बुद्धिनाथ मिश्र

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कोई एक गिलहरी
पत्ती-पत्ती गई कुतर
जीवन हुआ अजनबीपन का
छालों भरा सफ़र ।

यह कबंध-सा युग बन बैठा
भूलों का पर्याय
घर अपना हो गया आज
परचों की एक सराय

जलता जंगल, नए आइने
भटके इधर-उधर ।

रोके नहीं रुके पानी का
 यह मौसमी बहाव
जलावतन का दर्द झेलता
आँगन का मेहराब

सिरहाने के धरे फूल की
किसको रही ख़बर ।

मणि-हारे तक्षक-सी
 बस्ती की है नींद हराम
अर्थहीन पैबंद जोड़ते
बीते सुबहो-शाम

कितना कठिन यहाँ जी पाना
गिन के चार पहर !