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जिजीविषा / बुद्धिनाथ मिश्र

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नदी रुकती नहीं है
लाख चाहे सेतु की कड़ियाँ पिन्हा दो
ओढ़कर शैवाल वह चलती रहेगी ।

धूप की हल्की छुवन भी
तोड़ देने को बहुत है
लहरियों का हिमाच्छादित मौन
सोन की बालू नहीं, यह शुद्ध जल है
तलहथी पर
रोकनेवाला इसे है कौन ?

हवा मरती नहीं है,
लाख चाहे तुम उसे तोड़ो-मरोड़ो
ख़ुशबुओं के साथ वह बहती रहेगी ।

आँधियों का आचरण या
घना कोहरा ज़लज़ले का
काटता कब हरेपन का शीश !
खेत,बेहड़ या कि आँगन
जहाँ होगी उगी तुलसी
सिर्फ़ देगी मुक्तकर आशीष

शिखा मिटती नहीं है,
लाख चाहे पंख से उसको बुझाओ
आँचलों की ओट वह जलती रहेगी ।