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रोशनी द्वार-द्वार माँगी थी / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'
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रोशनी द्वार-द्वार माँगी थी
चप्पा-चप्पा बहार माँगी थी
झील, झरनों, नदी, समुंदर से
मीठे पानी की धार माँगी थी
वादियों ने दसों दिशाओं से
शांत शीतल बयार माँगी थी
सहरा आया हमारे हिस्से में
हम ने हरदम फ़ुहार माँगी थी
वक़्त अक्सर मुकर गया लेकिन
हम ने राहत हज़ार माँगी थी
हम ने तो इन प्रकाश-पुंजों से
रोशनी बार-बार माँगी थी
सर पे हरदम जो अपने लटकी है
कब ये नंगी कटार माँगी थी
पैंतरें आप को मुबारक सब
हम ने कब जीत-हार माँगी थी
कोई सपना ख़ुशी का मिल जाए
नींद यूँ कुछ उधार माँगी थी
हल चला कर 'यक़ीन' खेतों में
पेट भरने को ज्वार माँगी थी