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दहककर जल चुके हैं / केदारनाथ अग्रवाल

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दहककर जल चुके हैं अंधकार के दिशाओं के किंवाड़े
आँख खोलकर निहारती है नरम पंखुरियों की सुंदर
सुकुमार सुबह
खेये चली जा रही है नावों का एक बेड़ा
हरे हिंडोले की सरसराती हवा


रचनाकाल: १३-०६-१९६१