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गाँव बिक रहा है-3 / अमरजीत कौंके

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दादी का संदूक
अभी भी कोने में उसी तरह पड़ा है

गाँव से सब ज़रूरी वस्तुएँ
कोई कुछ ले गया
तो कोई कुछ
संदूक में पड़ी फुलकारियाँ
दादी की मयूर वाली दरियाँ
उसका ढक्कन वाला आईना
जिसमें मेरी दादी ’यशोधा’
यौवन में अपना मुख देखती थी
सब अपना अपना बाँट कर ले गये

संदूक गैर ज़रूरी वस्तु की तरह
अभी भी गाँव की
ढह रही बैठक में पड़ा है
मैं उसमें
अपनी दादी का भीगा हुआ चेहरा
देखता हूँ

मैं देखता हूँ
दादी अपनी जान से भी ज़्यादा
संभाल कर रखती थी अपना संदूक
उसके लिये संदूक जैसे
कारूँ का ख़ज़ाना था
जिसमें से वह
कितनी अनमोल वस्तुएँ निकालती
मेरा बाल मन
हैरान होता था देखकर
कि कैसे डेढ़ गुना डेढ़ फुट की खिड़की से
वह किसी जादूगर की तरह
अलग अलग चीज़ें निकाल कर रखती
दादी के चेहरे की आभा
उस समय
किसी बड़ी पटरानी के चेहरे जैसी होती

संदूक अब भी वैसे का वैसा है
इसके बीच की वस्तुएँ लोग
अपनी अपनी बाँट कर ले गए

मैं संदूक के चेहरे में
अपनी दादी का चेहरा
उभरते देखता हूँ
मैं संदूक को अपनी दादी का
प्रतीक समझकर
अपने साथ ले जाना चाहता हूँ
लेकिन क्या मेरी बीवी
इस संदूक को अपने घर में
जगह देगी

मैं, दादी के इस
लावारिस संदूक में से
दादी का झुर्रियों भरा
चेहरा
सिसकते देखता हूँ ।

मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा