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वरदवीणा हुई दीना / केदारनाथ अग्रवाल

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करण का रण रवण का रण
मरण का रण लड़े क्षण क्षण
हटे हठ से नहीं ठिठके
कहीं ठहरे नहीं बिक के
गले मिलते रहे गल के
शरण संबल रहे बल के
रची रचना रुचिर वसना
नलिन नयना विशद वसना
गए तुम कर गए सूना
भुवन भव है विरस ऊना
‘समासीना’ वह प्रवीणा
वरद वीणा हुई दीना
बचे घन के बँधे परिकर
तरल तम के रुँधे पुष्कर॥
वयन विदलित भारती है,
नयन विगलित भारती है॥
फिर उदय हो सदय दिनकर
किरण चुंबन करे जी भर
जलज जागें, विमुख मुख पर
बहे ‘परिमल’, गहें सुख स्वर।

रचनाकाल: १०-११-१९६१