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साधो, अशब्द साधना कीजै / प्रसन्न कुमार चौधरी

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इस अमावस्या की रात
सफर की तैयारी से पहले क्या तुमने
मानचित्रों को अच्छी तरह देख लिया है ?
मेरा कहा मानो तो उन्हे फिर देख लो .................कहाँ कहाँ जाना है
नोट कर लो

अच्छा पहले बताओ कौन हो तुम ?
दीदारगंज की यक्षी ? किसी गंधर्वलोक की उर्वशी ? कामायनी ?
या अजिंठा की गुफा में कैद
सजा के लिए नतशिर वह नर्तकी ?
जो भी हो, मेरे लिए सिर्फ एक स्त्री हो
सृष्टि की सुन्दरतम कृति ......................... रचना का सुन्दर होना
.......................................................(पुरुष के लिए) स्त्री होना है़

कूच के पहले थोड़ी देर आइने में झांक लेना
खुद को देखना
अपनी आँखों से आँखें मिलाना साहसी होना है
.............................................. कम-स-कम आज की दुनिया में
और साहसी होना ही कूच करना है

बालों को संवार लो और जूडे़ में ये फूल गूंथ लो
फिर इन्द्रधनुषी रंग में
झिलझिलाती यह साड़ी ओढ़ लेना
सृष्टि के जितने रंग हैं
उन सभी रंगों का सत्व है यह............................... रंग - ब्रह्म
सभी आँखें तृप्त होंगी तुम्हे देखकर
फिर भी तुम किसी की न होगी

मुक्त होना है सफर पर चलना है
अपनी-अपनी नीहारिकाओं से/उनकी कैद से
आजाद होना है............................................खुद अपने बनाये घोंसलों को
..........................................................................दूर से देखना
लेकिन क्या सफर में भी हम नहीं ढोते अपने-अपने घोंसले ?
अन्तरिक्ष की ऊँचाइयों में जाकर भी हम नहीं गाते सारे जहाँ से अच्छा.....

या फिर
यह सफर सिर्फ भ्रम है
किसी अज्ञात कृष्ण विवर की ओर खिंचे चले जा रहे हैं हम
और
मान बैठे हैं कि सफर है

चलो देखो कैसे चलती हैं
इव्स लारां और गार्डेन वरेली की रूपसियां
तुम्हारा सुन्दर होना ही काफी नहीं
दिखना भी होगा तुम्हें सुन्दर.............................एक शासक की तरह
असुन्दर का सुन्दर दिखना/फिलहाल हमारे यहाँ सभ्यता की यही परिभाषा है

कापालिक हो, लेकिन दिखो वैष्णव
खूनी हो, लेकिन दिखो मुनि
दिखना यहाँ होने से कहीं ज्यादा अर्थ रखता है
तुम्हें भी होना नहीं, दिखना है........................ मंजूर है ?

लेकिन बताओ तो
कैसे दिखता है सुन्दर असुन्दर
......................जीवन मृत्यु
.....................न्याय अन्याय
क्यों सुन्दर होना हार जाता है सुन्दर दिखने से
जीवन होना हार जाता है जीवन दिखने से
न्याय होना हार जाता है न्याय दिखने से
प्यार होना हार जाता है प्यार दिखने से
फिर क्या है हमारा होना ? बस एक मिथ ?

सफर की खुमारी में कहाँ खो गयी हो तुम
अच्छे नहीं न लगते मेरे ये सवाल
प्रकाश की गति से भागती तुम
कहाँ छोड़ आयी हो अपना पिण्ड
मेरी ऊर्जा ! ....................................धियो यो नः प्रचोदयात। (1)
आइन्सटाइन नहीं हूँ मैं
और क्या एक अदद आइन्सटाइन भी समझ पाया था तुम्हें ?

मैं
मुफस्सिल का एक अदना लड़का
‘देवी की सन्तान जिसका कोई दावेदार नहीं’
मृत्यु की सीमा पार कर आया हूँ
चलने



यह है मेरी धरती
जब पुरूषरूपी हवि से देवों ने यज्ञ को पसारा
(तो) उसके दो पैरों से जन्मी थी यह धरती................. और शूद्र भी
दोनो सगे

अछूत हुए शूद्र, पूजी गयी धरती
................................माता की तरह

छुए गए शूद्र, नोची गई धरती
....................................जैसे हमारी गली का कसाई नोचता है मेमने की खाल
आज तलक घिसटते आये हम बिना पैरों के
देखो क्या गत हो गयी हमारी

पैरों से जन्मने की पीड़ा
और पैरों से चलने का सुख
समझना......................शायद सभ्य होना है

ठुमकना.............गिरना..............फिर ठुमकना नन्हें ....... कृष्ण की तरह
फिर चलना.........दौड़ना और तेज दौड़ना.....
तेज और तेज
चाँद पर अपना पगचिह्न छोड़
अन्तरिक्ष की किसी अज्ञात गली में
खो जाता है एक आर्मस्ट्रांग ..........पायोनिअर की तरह....
काल की सूई उलट घूमने लगती है

फिर
इस सिलिकॉन घाटी में
हम तलाशते हैं एक पीपल का पेड़/एक सुजाता
एक थाली खीर से भरी
एक बुद्ध
लीलाजन (2) के तट पर छोड जाता है
सल्वाडोर डाली............ खाली मेज/खाली कुर्सियां/कॉफी का खाली प्याला

आओ क्षण भर यहाँ सुस्ता लें
कोई जुगलबंदी रचें
तुम वीणा की झंकार बनो/मैं खाली कैनवास पर दौड़ती कूची
तुम पैरों से जन्मने की पीड़ा/मैं पैरों से चलने का सुख

किसी स्टीरॉयड के सहारे कब तक दौड़ेगी कोई सभ्यता
दौड़ता तो पैर है
इसलिए किसी को सम्मान देना
उसका चरण छूना है



चेक-अप के लिए अस्पताल में आने लगी है धरती
फूलमती की तरह कोठे से नारी निकेतन
और नारी निकेतन से कोठे पर आती जाती रहती है
एलियट की औरतों की तरह नहीं बतियाती वह माइकलएंजेलो

हवि होना तो हम सबकी नियति है
निरंतर मरना है निरंतर जीना/निरंतर आहुति है सृष्टि
यत् पुरूषेण हविसा देवा यज्ञमतन्वत।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ।।(3)
कैसे बचेगी धरती हवि होने से ?

आहुति और कत्ल का फर्क समझती है धरती
लेजर किरणों से बिंध
मिसाइलों की तरह छटपटाकर टुकड़े-टुकड़े होना नहीं चाहती वह
गैस चैम्बर में घुटकर
वह नहीं बनना चाहती भोपाल
सूर्य की तेज से जन्मी सूर्य की यह बेटी
नहीं होना चाहती भष्म उसी तेज से

आहुति माँ देती है
हवि होना माँ होना है धरती की तरह
यो व: शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः।।(4)



कहाँ भटक गया मैं !
यक्षी, सुना तुमने.......... दुनिया बदल रही है
जो सपना था साकार हो रहा
जो साकार था सपना हो रहा

हवा के थपेड़ों से खुल गयी हैं.....................क्रेमलिन की बन्द खिड़कियाँ
और हमारा एक दोस्त
जो शांघाई की सड़कों पर बेचता था लाल किताब,
धीरूभाई अम्बानी की जीवनी बेच रहा है
मुनाफा अबकी ज्यादा है

आस्था की कोख से जन्म लेता है चमत्कार(5)
जब आस्था की दीवार में पड़ जाती है दरार
निकल आता है उससे संशय का महाद्वार
जिज्ञासया संदेह प्रयोजने सूचयति(6)

लेकिन संशय तो भटकना है
उसे मंजिल से ब्याह दो तो उदात्त सफर बन जाता है
भटकता यथार्थ मन की कामना में विश्राम पाता है

मैं भटकता यथार्थ
तू मन की कामना
भटकते/यूं ही मंडराते शब्दों का गुच्छ है मेरा अस्तित्व
बोलते जाना मेरा धर्म है
तुम समझो या न समझो
एक अन्तहीन अंतरिक्ष/एक नदी
एक विद्युत-चुम्बकीय तरंग
गुलदाउदी, गुलमोहर, गुलाब/रजनीगंधा, रातरानी.....
भटकता यथार्थ बचपन के साथ
कहीं खो जाता है
टमाटर और चने के खेत में
नमक और हरी मिर्च की पोटली दबाए............ फिर भी तुम
वहीं कहीं आसपास होती हो
फ्रॉक फैलाये -- टमाटर, साग, फूल और कैरम की गोटियां समेटे

विश्राम की जमीन सख्त नहीं होती
किसी रूढ़ विचारधारा की तरह
कोमल हैं कामना कमल की तरह
.............................................जिस पर विश्राम करता है एक ब्रह्मा
.............................................हंस की तरह
.............................................जिस पर विराजती है एक सरस्वती
.............................................गोद की तरह
.............................................जिस पर चुपचाप सो जाता है
.............................................अभी-अभी उछलता-कूदता एक नन्हा शिशु



दुनिया बदल रही है
और मेरे बच्चे की टिफिन में डाल देता है
चुपके से कोई हेरोइन के पैकेट
या फिर निगल जाता उसे स्कूल पहुँचने से पहले
एक शक्तिसंपन्न किन्तु अभिशप्त सभ्यता की
एक-एक कर सारी रक्षापंक्तियां
ढ़हती जा रही हैं/डस गया है उसे एड्स का साँप
..........................और हम रामचन्दर पानवाले की दूकान पर
..........................बालों में कंघी फिराते
..........................कोने में बैठी अधनंगी लड़की को कनखियों से देखते
..........................जोर से उछाल देते हैं
..........................पीक - सड़क पर, जहाँ गणेशी का बेटा सीता है जूता

इस चौक पर हमेशा भगमभाग मची रहती है
हर आदमी भागता होता है अपनी मंजिल की ओर
लेकिन मंजिल क्या है इस पूरी भीड़ की ?
है कोई यहाँ मुकम्मिल आदमी ?
.................................वह या तो क्षिति है जल है पावक है गगन है या समीर
.................................कलम है कुदाल है या कीबोर्ड
.................................लेथ है स्टेथेस्कोप है या कैरमबोर्ड
.................................विकेट है डंडा है तमंचा या साइनबोर्ड
.................................ऐसा ही कुछ.....
अप्सरा, बताओगी
..........................पंचतत्वों का वह सम्मिश्रण कहाँ है
..........................जिसे देखकर शेक्सपीयर सोचता था
..........................प्रकृति खुद गा उठेगी, ‘यह मानव है !’
वह आत्मा कहाँ है
जहाँ चेतना की समस्त धाराएं आकर विलीन हो जाती है ? (७)
एक हजार गाय और स्वर्णमुद्राएं लेकर
जाओ याज्ञवल्क्य के पास पूछकर आओ यह अतिप्रश्न नहीं है/ सिर तुम्हारा सलामत रहेगा



लो आ गया तुम्हारे सफर का आखिरी पड़ाव
यह शब्दों का प्रदेश है.....
इस शब्द का अभी-अभी कत्ल हुआ है
................................गाढ़ा रक्त बह रहा है
इधर द्वन्द्व में औंधे मुँह गिर पड़ा है यह शब्द
यहाँ किसी ने शब्दों की कै की है
उफ् कितनी दुर्गन्ध है !
बासी शब्दों में रेंगते हैं कीड़े
और आसपास शब्दों का बलगम है
संभल कर चलना !

उधर उस शब्द को देखो
घिसकर कितना बौना हो गया है
मेरे गाँव के शिवलिंग की तरह
इसका बौनापन बताता है
कभी कितना पूज्य था यह

और यह है शब्दों का श्मशान
शून्य में शब्द की बात सुनी होगी तुमने
यहाँ देखों शब्दों का शून्य
क्या इस शून्य में नये शब्दों के पौधे लगाओगी ?
इन बासी और मुर्दा शब्दों की प्रदान करोगी
खाद की सार्थकता ?

उस दिन राह चलते मिले थे डॉ. खुराना
पूछ बैठे, ‘ सुना है, आजकल शब्दों की खेती में पिले हो ?
..........................फुर्सत निकालकर आना मेरी प्रयोगशाला में
..........................विकसित की है मैंने शब्दों की एक नयी प्रजाति
...........................भई, जिनियागिरी का जमाना है
...........................आनुवंशिक रोगों से मुक्त
............................एचवाईवी 2001 शब्दबीज ले जाना -
............................शब्दक्रान्ति लाना इससे ’

और सच !
चौक की बायीं और वाली बड़ी होर्डिंग
(जहाँ पहले ‘ नर्म, मुलायम त्वचा,’ वाला विज्ञापन होता था)
इसी नये शब्दबीज के आगमन का ऐलान कर रही थी
एचवाईवी 2001 के एक किलो पोलिपेक को आकर्षक अंदाज में हिलाती हुई
एक लड़की फरमा रही थी -
इस शब्दबीज की खरीदारी में ही समझदारी है !
क्योंकि इसमें है
........................साम्यवाद/ गोल कर दी गई स्तालिन की जीन
.......................................मिक्स की गयी है थोड़ी रोजावाली
........................................कम -स-कम चालीस फीसदी फेरबदल के साथ
.........................................डाली गयी है माओजीन .....
........................उदारवाद/ काफी घटा दी गयी है नपुंसकता इसकी
......................................जिनियागिरी की बदौलत
........................अनुदारवाद/सहिष्णु और संयत बना दिया गया है
.........................................कल का यह ऐंठा हुआ धनी छोकरा
........................फतवों के धतूरे नहीं फलेंगे इन शब्द-पौधों में
.........................मुकम्मिल गांरटी, देश भर में 2001 सर्विसिंग सेंटर्स ......
कामिनी ! लोगी यह शब्दबीज



‘शब्दों की यह खेती तुम्हें ही मुबारक।
पंचमेल ध्वनियां नहीं कहलाती नाद-ब्रह्म
शब्दों के शिल्पी !
पहले अ-शब्दों की दुनिया में आओ
समझ पाओगे तभी शब्दों का सच्चा मर्म
राहुल, तुम धरती बनो जल बनो आग बनो...............................
अ-राहुल बनो तुम
शब्दों की गुफा तुम्हंे अपनी कैद में रख
कभी नहीं प्रकट होने देंगी तुम पर
गुफा का रहस्य
शब्दों का तिलिस्म
तोड़ सकता है सिर्फ अ-शब्द !
और शब्द ही अमूर्त होकर बनता है अ-शब्द
जैसे गति अमूर्त होकर बन जाती है नित्य
मूर्त शब्दों की जिन्दगी चाहते हो तो साधना करो अमूर्त बनने की
सच
कितना सहज है मूर्त बनकर
अपनी-अपनी मांदों में दुबके रहना
ऐंठना@अपने सब्जबाग में इठलाना इतराना ईष्र्या करना
और कितना कठिन है
अमूर्त होकर सबमें समा जाना प्यार बन जाना
दिव्य ध्वनियों को शब्दों मंे तराशता है आदमी
और इन शब्दों को ढ़ोना
उसकी नियति है शब्दधारी प्राणी वह
शब्दों के कचरे से, टूटे-फूटे शब्दों से शब्दबाग बनाना
जानता है वह नेकचन्द के रॉक गार्डेन की तरह
देखना चाहो तो देख सकते हो तुम
मिसीसिपी, वोल्गा, अमेजन, गंगा, यांगत्सी, मेकंग की घाटियों में
सुन्दर सजे-संवरे इन शब्दबागों को
सदियों से फेंके गये शब्दों, शब्द महलों के भग्नावशेषों
शब्द-तिनकों और टुकड़ों से जोड़-जाड़कर
बनायी गयी हैं ये सुन्दर आकृतियाँ

ये शब्द-पेड़ ये शब्द-खेत ये शब्द झरने ........................
ये शब्द-गुलाब ये शब्द सीढ़ियाँ ये शब्द मूर्तियाँ............
ये शब्द हाइट हाउस ये शब्द-क्रेमलिन ये शब्द-निषिद्ध नगर ...............
ये शब्द-जगन्नाथ ये शब्द-मक्का ये शब्द सलीब..................
लेकिन मेरे प्रियतम
तुम इन अद्भुत शब्द-बागों में
खो मत जाना
जब लोग शब्दों से ही शब्दों को तराशने लगें
तब तुम उन्हें
स्रोत की
निःशब्द दिव्य ध्वनियों की याद दिलाना
शब्दों से कहना
उनकी आहुति का समय आ गया है
कि उन्हे नया शब्द संसार रचना है
अपनी हवि देखकर माँ की तरह
इस शब्दमेध यज्ञ में इन शब्दों की हवि देते समय कहना -
शब्द ऊर्जा !
तुम हमारी निःशब्द वाणी में, हमारे निःशब्द कर्म में
नये शब्दों के रूप में अंकुरित होओ
बनो एक नया संवाद@ एक नया सेतु



एक पगडंडी अनन्त
आसपास बिखरे कनेर के फूल
एक नदी पहाड़ी@एक पुल@एक सुबह
एक उष्ण@मादक सुगंध @आम के बौरों की
एक हल्का झोंका हवा का@पीली मिट्टी@हरी घास का मैदान
बच्चे@टिकुलियाँ चुनती लड़कियाँ
एक तरंग - शायद विद्युत्चुम्बकीय
इस एक की कगार पर खड़ा एक मैं
सफर के अन्त में
देखता हूँ सामने एक नया ब्रह्माण्ड
मेरी मृत्यु तुम किसका जीवन हो
मेरी संध्या तुम किसकी उषा हो
मेरे अन्त तुम किसका प्रारम्भ हो ?
अलविदा..........................स्वागतम्

(फरवरी, 1989)