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मटर का एक दाना और मैं / केदारनाथ अग्रवाल

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मेरे सामने पड़ा है
मेरे आँगन में
मटर का एक दाना

मुझसे दूर-
कुछ फासले पर
उसका अस्तित्व है

मेरा अस्तित्व
उससे दूर-
कुछ फासले पर
मेरे समीप है

उसका बोध
और अपना बोध
मुझे एक साथ हो रहा है

इसी से
वह मटर
मेरे बोध में
मेरी मटर है
और मैं
उस मटर का हूँ

यथार्थ का
और ‘इस बोध’ का सम्मिलन
सृष्टि के अनंत अस्तित्व का प्रमाण है

वह रहे न रहे
मैं रहूँ न रहूँ
रहना भी एक अस्तित्व है
न रहना भी एक अस्तित्व है
अनस्तित्व असंभव है-
न मेरा-न मटर का
न और किसी का

रचनाकाल: १३-०९-१९६५