गवाही / मणि मधुकर
जख्म जब सूखने लगा और खून ने एक
गैरवाजिब चुप्पी अख्तियार कर ली तो वे मेरे सिर पर
चाणक्य का अर्थशास्त्र तानकर खड़े हो गये
मोमबत्तियां जल रही थीं जलसे में
मोम कुछ दरारों में गिरकर शासन की आत्मकथा तक
पहुंच रहा था
जिसमें मुहावरों की बंजर जमीन थी या मोटी चमड़ी की आभा
चाहने भर की देर थी
मैं भी कुछ निकम्मी हड्डियों और अनाथ खुशियों को
ठेले में भरकर
बांबियों के बीच से रास्ता बना सकता था
सलाम ठोंक सकता था
कवायद कर सकता था
खाकी फैसलों के सामने
लेकिन
मेरे जिस्म में एक खाली पेट और मवाली अहसास था
इससे पहले कि कोई बेसब्री का अनुवाद करे
चिडि़यों के आगे चालाकी के दाने बिखराये
मुझे उन हादसों में
उतरना था जिनके भीतर
जिन्दगी की साबुत
मुस्कराहटें उगती हैं
यह जानते हुए कि जख्म एक खुले मर्तबान
की तरह मैदान में रखा हुआ है
मैंने उन खुदगर्ज हर्फों के खिलाफ गवाही दी
जो रोजमर्रा की तकलीफों की
नगरपालिका की ओर धकेल रहे थे
वे उस वक्त भी मेरे चौतरु हैं
उनकी गुर्राहट
कपड़ों की सलवटों में खो गयी हैं
और मेरी नफरत मेरी बेचैनी सूखे जख्म की भांति
सख्त गाड़ी खुरदरी हो गयी है !
('बलराम के हजारों नाम' से)