मैं तो भजन भाव हूँ! / किशोर कल्पनाकांत
मैं तो भजन भाव हूँ , मन के तंबूरे पर गाओ !
मुझ में ध्वनित शब्द नाद को साधो ,तुम अपनाओ !
में न कभी परिभाषित होता , 'मैं' को 'मैं' ही जानो !
भजनभाव में विह्वल हो कर ,'मैं' को तुम अनुमानों !
सुनाने वाला मिले न कोई , ' मैं' को बैठ सुनाओ !
मैं तो भजन भाव हूँ , मन के तंबूरे पर गाओ !
भव उत्पीडित सकल जगत है घोर भयावह भाथी!
निविड़ - निभृत जीवन में, प्रिय तुम, ढून्ढ रहे हो साथी!
चरैवेति का चाक्छुस चंदन , घिस -घिस माथ लगाओ !
मैं तो भजन भाव हूँ , मन के तंबूरे पर गाओ !
व्योम-विहग बन उड़ा प्राण जो , कहाँ पहुँच कर थमता?
छोर-हीन विस्तार व्याप्त है , वह जोगी है रमता !
अपरा के सम्मोहन में तुम मत उस को उलझाओ!
मैं तो भजन भाव हूँ , मन के तंबूरे पर गाओ !
तीन काल की त्रिभुवन यात्रा , मैं तो अथक बटोही!
ढून्ढ रहा अपने ही भीतर , 'मैं' को मैं हूँ टोही!
'स्व' को भजन बनाया मैंने , 'स्व' को मत अलगाओ!
मैं तो भजन भाव हूँ , मन के तंबूरे पर गाओ !