मैं तो भजन भाव हूँ, मन के तंबूरे पर गाओ !
मुझ में ध्वनित शब्द नाद को साधो, तुम अपनाओ !
में न कभी परिभाषित होता, 'मैं' को 'मैं' ही जानो !
भजनभाव में विह्वल हो कर,'मैं' को तुम अनुमानों !
सुनाने वाला मिले न कोई, 'मैं' को बैठ सुनाओ !
मैं तो भजन भाव हूँ, मन के तंबूरे पर गाओ !
भव उत्पीडित सकल जगत है घोर भयावह भाथी !
निविड़-निभृत जीवन में, प्रिय तुम, ढून्ढ रहे हो साथी !
चरैवेति का चाक्छुस चंदन, घिस -घिस माथ लगाओ !
मैं तो भजन भाव हूँ, मन के तंबूरे पर गाओ !
व्योम-विहग बन उड़ा प्राण जो, कहाँ पहुँच कर थमता ?
छोर-हीन विस्तार व्याप्त है, वह जोगी है रमता !
अपरा के सम्मोहन में तुम मत उस को उलझाओ !
मैं तो भजन भाव हूँ, मन के तंबूरे पर गाओ !
तीन काल की त्रिभुवन यात्रा, मैं तो अथक बटोही !
ढून्ढ रहा अपने ही भीतर, 'मैं' को मैं हूँ टोही !
'स्व' को भजन बनाया मैंने, 'स्व' को मत अलगाओ !
मैं तो भजन भाव हूँ, मन के तंबूरे पर गाओ !