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साँच मायलो / यादवेंद्र शर्मा 'चंद्र'

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जद-जद म्हांरो उणियारो,
उणमणै सूं किच्योईज जावै,
डाबरनैणा मांय पीडावां झळमळावै,
तद-तद म्हारा भायला
तीर ज्यूं तीखा बोळ चुभावै -
‘के भयला तन्नै,
किणी टींगरी सूं परेम हुयग्यो दीसै’
म्हैं बाने कियां बतावूं
कै म्हारी भैण मोट्यार हुयगी है,
अर म्हैं ठालो बैठ्यो हूं।
जद-जद म्है मंदर जाय’र
ईसरै सामै माथो टेकूं
तद म्हारा भायला जाणै
कै म्हैं जीवण रा सातूं सुख मांगू,
पण सांच तो ओ है कै
म्हैं मा छोटी-मोटी नौकरी मांगू,
वजै म्हारी विधवा मायड मांदी है।
जद म्हैं म्हारा मायलां दुखां सूं
आकळ-बाकळ होयनै,
झींटा खींचू,
भायला जाणे के म्हैं
गैलो हुयग्यो हूं,
पण असल में
म्हैं म्हारै मांयले
विदरोव ने,
इण मिलख खावणी व्यवस्था रो
विरोध करूं,
जिकै ने म्है चिरलाय-चिरलाय
नीं कैय सकूं।
म्हैं लाचार हूं। भायला लाचार हूं।