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सात सौ साल पुराना छन्द / आलोक धन्वा
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पृथ्वी घूमती हुई गयी किस ओर
कि सेब में फूल आने लगे
छोटे-छोटे शहरों के चाँद
अलग-अलग याद आये
बारिश से ऊपर उठते हुए उनका क़रार
घास की पत्तियों में ठहर गयी बूँदें
बिखरने लगीं तमाम नींद में
धूप उतरी नींबू में
पहला प्यार जब राख हो गया
ख़ुद को बचाया उस साँवली नृत्य शिक्षिका ने
दंगे के ख़िलाफ़ दिखी वह प्रभातफेरी में फिर
शरीर और समुदाय एक हुआ
लंबी छुट्टी बीच में हीं ख़त्म कर
लौटी वह फिर काम पर
आयी अपनी छात्राओं के बीच
अभ्यास कराने सात सौ साल पुराने छंद का ।
(1994)