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एक बुलबुला / कुमार सुरेश
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झील कि सतह पर उपजा और फूला 
उसने देखा पानी कि विशाल चादर को 
खुले नीले आसमान को 
आसमान में उड़ते पक्षियों को 
और सोचा 
अहा! मैं इन सब से अलग हूँ ! 
मैं ज्यादा गोल-गोल और सुन्दर
ज़्यादा ताज़ा ज़्यादा युवा हूँ 
पानी कि चादर अधिक ठंडी है 
आकाश ज़्यादा ही ऊपर है 
और मछलियाँ सब बुद्धू हैं 
दूसरे बुलबुलों को देखकर बोला 
ये सब अजीब हैं. 
सूरज कि गर्मी जब तेज़ हुई
बुलबुला सिकुड़ने लगा
सूरज से सिकुड़ने से बचाने कि प्रार्थना करने लगा 
सूरज ख़ामोश रहा और तपता रहा 
बुलबुला यह सोचते हुए फूटा 
कि उसके जैसा बुलबुला 
कोई हुआ न होगा 
इतनी देर में झील पर हज़ारों नए ताज़े बुलबुले 
बन चुके थे
 
	
	

