माँ / भाग ५ / मुनव्वर राना
अब देखिये कौम आए जनाज़े को उठाने
यूँ तार तो मेरे सभी बेटों को मिलेगा
अब अँधेरा मुस्तक़िल रहता है इस दहलीज़ पर
जो हमारी मुन्तज़िर रहती थीं आँखें बुझ गईं
अगर किसी की दुआ में असर नहीं होता
तो मेरे पास से क्यों तीर आ के लौट गया
अभी ज़िन्दा है माँ मेरी मुझे कु्छ भी नहीं होगा
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है
कहीं बे्नूर न हो जायें वो बूढ़ी आँखें
घर में डरते थे ख़बर भी मेरे भाई देते
क्या जाने कहाँ होते मेरे फूल-से बच्चे
विरसे में अगर माँ की दुआ भी नहीं मिलती
कुछ नहीं होगा तो आँचल में छुपा लेगी मुझे
माँ कभी सर पे खुली छत नहीं रहने देगी
क़दमों में ला के डाल दीं सब नेमतें मगर
सौतेली माँ को बच्चे से नफ़रत वही रही
धँसती हुई क़ब्रों की तरफ़ देख लिया था
माँ बाप के चेहरों मी तरफ़ देख लिया था
कोई दुखी हो कभी कहना नहीं पड़ता उससे
वो ज़रूरत को तलबगार से पहचानता है