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उस दिन / शैलेन्द्र

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उस दिन ही प्रिय जनम-जनम की

साध हो चुकी पूरी !


जिस दिन तुमने सरल स्नेह भर

मेरी ओर निहारा;

विहंस बहा दी तपते मरुथल में

चंचल रस धारा!

उस दिन ही प्रिय जनम-जनम की

साध हो चुकी पूरी!


जिस दिन अरुण अधरों से

तुमने हरी व्यथाएं;

कर दीं प्रीत-गीत में परिणित

मेरी करुण कथाएं!

उस दिन ही प्रिय जनम-जनम की

साध हो चुकी पूरी!


जिस दिन तुमने बाहों में भर

तन का ताप मिटाया;

प्राण कर दिए पुण्य--

सफल कर दी मिट्टी की काया!

उस दिन ही प्रिय जनम-जनम की

साध हो चुकी पूरी!


1945 में रचित