तब कुँवारी कन्या थी मैं
और दो चोटी करती थी
खिड़की के निकट बैठ मैं,
बाहर देखा करती थी
वह रात ख़ूब खिली-खिली थी
तारों का था ज़ोर
दूर समुद्र से उठ रहा था,
लहरों का धीमा शोर
अर्धनिद्रा में डूबी थी स्तेपी,
धीरे से काँप रही थी
रहस्यमय स्वर में अपना
मरमर... आलाप रही थी
तुमने पूछा पहले तुमसे
आया कौन मेरे पास ?
किसने फेरों से पहले मुझे
घेर लिया उस रात ?
किसने उस रात किया था
मेरी आत्मा को चूर ?
स्नेह, प्यार और उत्पीड़न से
किया मुझे भरपूर
किसके समक्ष समर्पण किया
मैंने उदास होकर ?
जुदा होने से पहले उससे,
यूँ तेरा विश्वास खोकर
(02 सितम्बर 1915)