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घूम रहा था साथ मैं उसके,
जब गहरा गई थी रात
चूम रहा होंठों को उसके,
मन में थे कोमल जज़्बात
बोली वह- "प्रिय, बाँहों में लेकर
मुझे भींच ज़ोर से इतना
निर्दयी और बेरहम लगे तू,
किसी उद्दण्ड किशोर जितना"
जब थक गई वह, कहा उसने फिर
यह कोमल-स्वर में---
"सुला मुझे अब, प्रिय, थोड़ा-सा,
अपनी बाँहों के घर में
मत चूम मुझे तू इतनी ज़ोर से,
ओ असभ्य, बेहूदे, पागल,
रख अपना सिर छाती पर मेरी,
और न कर फिर कोई हलचल"
तारे चमक रहे थे चुप-चुप
हम दोनों के सिर पर
शीतल ओस महक रही थी,
बरस रही थी हम पर
मुझे लाड़ उस पर आया था,
मैं रगड़ रहा था होंठ
कभी उसके गर्म गालों को छूता,
कभी नाक की नोक
बेसुध-सी सोई पड़ी थी,
कि भौंचक जागी वह ऐसे
सुखद नींद में चौंक उठा हो,
कोई नन्हा शिशु जैसे
मुझे देखा पल भर को उसने,
खोल आँख का कोना
मुस्काई, फिर लिपट गई मुझसे,
ज्यों हिरणी से छौना
राज रात का रहा देर तक,
उस अंधेरे संसार में
मैं था उसकी नींद का रक्षक,
वहाँ उसके दरबार में
फिर सुनहरे सिंहासन पर,
चमक दिखी एक ताज़ा
पूर्व दिशा से धीरे-धीरे
उभर आया दिनकर राजा
जब ठंड बढ़ गई सुबह-सवेरे,
तब मैंने उसे जगाया
दिन नया निकल आया है,
धीरे से उसे बताया
सूर्य चमक रहा था अरुणिम,
रुपहली आभा थी
टहल-चले हम ठंडी ओस पर,
घर उसे पहुँचाया
(1901)
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय