भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बाघिन / नागार्जुन
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:55, 18 नवम्बर 2010 का अवतरण
लम्बी जिह्वा, मदमाते दृग झपक रहे हैं
बूँद लहू के उन जबड़ों से टपक रहे हैं
चबा चुकी है ताजे शिशुमुंडों को गिन-गिन
गुर्राती है, टीले पर बैठी है बाघिन
पकड़ो, पकड़ो, अपना ही मुँह आप न नोचे!
पगलाई है, जाने, अगले क्षण क्या सोचे!
इस बाघिन को रखेंगे हम चिड़ियाघर में
ऐसा जन्तु मिलेगा भी क्या त्रिभुवन भर में!
(१९७४)