भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं अकेला / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:48, 18 नवम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" |संग्रह=अणिमा / सूर्…)
मैं अकेला;
देखता हूँ, आ रही
मेरे दिवस की सान्ध्य बेला ।
पके आधे बाल मेरे
हुए निष्प्रभ गाल मेरे,
चाल मेरी मन्द होती आ रही,
हट रहा मेला ।
जानता हूँ, नदी-झरने
जो मुझे थे पार करने,
कर चुका हूँ, हँस रहा यह देख,
कोई नहीं भेला<ref>पुराने ढंग की नाव</ref> ।
शब्दार्थ
<references/>