भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वहशत-ए-दिल सिला-ए-आबलापाई ले ले / फ़राज़

Kavita Kosh से
Bohra.sankalp (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:02, 20 नवम्बर 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वहशत-ए-दिल सिला-ए-आबलापाई ले ले
मुझसे या रब मेरे लफ़्ज़ों की कमाई ले ले

अक़्ल हर बार दिखाती थी जले हाथ अपने
दिल ने हर बार कहा आग पराई ले ले

मैं तो उस सुबह-ए-दरख़्शाँ को तवन्गर जानूँ
जो मेरे शहर से कश्कोल-ए-गदाई ले ले

तू ग़नी है मगर इतनी हैं शरायत मेरी
ये मोहब्बत जो हमें रास न आई ले ले

अपने दीवान को गलियों मे लिये फिरता हूँ
है कोई जो हुनर-ए-ज़ख़्मनुमाई ले ले

और क्या नज़्र करूँ ऐ ग़मे-दिलदारे-फ़राज़
ज़िन्दगी जो ग़मे-दुनिया से बचाई ले ले