भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तिरियाक / संजय मिश्रा 'शौक'

Kavita Kosh से
Alka sarwat mishra (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:16, 20 नवम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna}} रचनाकार=संजय मिश्रा 'शौक' संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> चहार सिम्त स…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकार=संजय मिश्रा 'शौक' संग्रह= }}


चहार सिम्त से उठाता है शोर धरती पर
जिसे भी देखो वो अपना अलम उठाए है
गरज ये है कि उसे जो भी चाहिए मिल जाए
किसी का हक भी पड़े मारना तो गम कैसा
कोई जो बीच में आए तो साफ़ हो जाए
ये फिक्र वो है जो हर आदमी की चाहत है
अजीब हाल है इस अहद का यहाँ पर तो
कोई नहीं है कहीं हकपरस्त लोगों का !
कभी यहाँ भी मुहब्बत के फूल खिलते थे
किसी की फिक्र पे आती नहीं थी आंच कभी
यहाँ भी लोग सलीके से ज़ख्म सिलते थे
फजा में ज़हर नहीं था कहीं भी अब जैसा
रवां-दवां थी यहाँ ज़िंदगी की हर रौनक
मगर ये किसने तअस्सुब की फ़स्ल बोई है
कि जिससे फैले हैं नफ़रत के ये तमाम दरख़्त
फजा-ए-सहर जभी तो हुई है ज़हर-आलूद
इसी की आग में झुलसे है नस्ले-इंसानी
इसी वबा का तो हमको इलाज करना है
ज़मीं पे बोयेंगे हम फिर मुहब्बतों के फूल
फ़ज़ा-ए-क़ल्ब में ईमां की रौशनी भरकर
हमीं हटायेंगे कालख की पर्त सीनों से
जो पाक दिल हों नज़र पाक हो ज़बां भी पाक
जगह न पाएगी फिर इस ज़मीं पे नापाकी
ज़बां पे शहद दिलों में ख़ुलूस होगा फिर
जगह न पाएंगे बुग्जो-हसद कहीं पर भी
अमल की आंच से पिघलेगी ये जमीई हुई बर्फ
हमें यकीन है अपने ख़ुलूस से हम लोग
हर एक ज़हर का तिरियाक ढूंढ ही लेंगे!!!!