भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वो नशीली-सी झील मस्तानी / उमेश पंत

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:01, 21 नवम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उमेश पंत }} Category:ग़ज़ल <poem> वो नशीली सी झील मस्तानी…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो नशीली सी झील मस्तानी
गुनगुनी धूप गुनगुना पानी ।

आज सूरज चाँद बनके बिखरने-सा लगा
बनके तारा पानी में उभरने-सा लगा ।

बूँदों में पसरने लगी दूधिया पिघलन
जैसे पानी में ही बस आया हो चमकता सा चमन ।

घिरती चट्टानों का बनता वो वलय
उनकी गोदी से वो सूरज का उदय ।

रात को शहर डूब-डूब के तिरता है यहाँ
बनके आवारा-सा अंधेरे में फिरता है यहाँ ।

रगों में तैरती सिहरन भी नशे जैसी है
सर्द रातों में डूबती हुई मदहोशी है ।

धूप पेड़ों की पत्तियों से ओस-सी टपके
रुह में जाती है उतर गर्माहट छनके ।

आज दो पालों से तारे खे लें
आज गीली-सी रोशनी ले लें ।

आज पूछें न कुछ जानें कि ज़िन्दगी क्या है ?
आज महसूस करें राजे दिललगी क्या है ?

तैरते चमकते सारे जवाब सामने सवाल है क्या ?
कैसे कह दूँ कि नैनीताल है क्या ?