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अपने हाथ अपना खून चाहती / रामप्रकाश 'बेखुद' लखनवी

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अपने हाथ अपना ख़ून चाहती है
ज़िन्दगी अब सुकून चाहती है

अब ज़मीं नफ़रतों की धूप नहीं
प्यार का मानसून चाहती है

भूक में कितने जिस्म ये धरती
प्यास मे कितना खून चाहती है

इश्क़ अहले ख़ि
रद का काम नहीं
आशिक़ी तो जुनून चाहती है

ख़्वाब
 शायद वो बुन रही है कोई
इक सुहागन जो ऊन चाहती है

ज़िन्दगी उम्र के दिसम्बर में
फिर वही मई व जून चाहती है

कितनी नादान है ये दुनिया भी
पहले जैसा सुकून चाहती है

कामयाबी सुखनवरी ही नही
और भी कुछ फ़ुनून चहती है

छत हमारे गुमान की ’बेख़ुद

अब यक़ीं का सुतून चाहती है