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चूल्हा अलग हुआ / अनिरुद्ध नीरव

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चूल्हा अलग हुआ
बँटी फिर आग भी

       आग न केवल वह
       जो हंडी में
          अंधन खौलाए
       वह भी
       रक्त शिराओं में
       जो ज्वाला तरल बहाए

जुदा हुए हल बैल
भोग और भाग भी

       आँगन छोटे हुए
       तो फिर
       आकाश न क्यों कम-कम हो
       तिरछी धूप किसे
       और किसकी
             चाँदनियों में ख़म हो

आते पाहुन बेटे
मुंडेरे काग भी

       अपनों के
       अब अपनेपन की
           अपनी सीमाएँ हैं
       बहुत जला कर
       ईंटों को
            दीवारें चिनवाएँ हैं

घर में उगा पड़ोस
दिलों में नाग भी ।