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हरी-भरी बातें / अनिरुद्ध नीरव
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फिर शुरू हुईं
हरी-भरी बातें
तोड कर पहाड़ों के दायरे
एक जलप्रपात-सी
झरी बातें
अपमानों पर
धवल ध्वजाएँ
घावों पर खोंस कर गुलाब
जिसके पन्नों पर
टपका ज़हर
हमने खोली वही क़िताब
उलटे तिलचट्टों-सी
शेष रहीं
चीटियाँ घसीटतीं
मरी बातें
हम जो इतिहास में
पहाड़ थे
ऊँटों के काफ़िले हुए
पोले संबंधों ने
क्या दिए
सन्नाटों से भरे कुएँ
कितनी चतुराई से
बाँध रहे
गमछे में
आग से भरी बातें ।