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चुप रहिए / रमानाथ अवस्थी

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देख रहे हैं जो भी, किसी से मत कहिए,
मौसम ठीक नहीं है, आजकल चुप रहिए ।

कल कुछ देर किसी सूने में, मैंने कीं ख़ुद से कुछ बातें,
लगा कि जैसे मुझे बुलाएँ बिन बाजों वाली बारातें ।
कोई नहीं मिला जो सुनता मुझसे मेरी हैरानी को,
देखा सबने मुझे न देखा, मेरी आँखों के पानी को ।

रोने लगीं मुझी पर जब मेरी आँखें,
हँसकर बोले लोग, माँग मत जो चहिए ।

चारों ओर हमारे जितनी दूर तलक जीवन फैला है,
बाहर से जितना उजला वह भीतर उतना ही मैला है ।
मिलने वालों से मिलकर तो, बढ़ जाती है और उदासी,
हार गए ज़िन्दगी जहाँ हम, पता चला वह बात ज़रा-सी ।

मन कहता है, दर्द कभी स्वीकार न कर,
मज़बूरी हर रोज़ कहे इसको सहिए।

फुलवारी में फूलों से भी ज़्यादा सापों के पहरे हैं,
रंगों के शौकीन आजकल जलते जंगल में ठहरे हैं ।
जिनके लिए समन्दर छोड़ा वे बादल भी काम न आए,
नई सुबह का वादा करके लोग अंधेरों तक ले आए ।

भूलो यह भी दर्द, चलो कुछ और जिएँ,
जाने कब रुक जाएँ, ज़िन्दगी के पहिए ।

जनता तो है राम भरोसे, राजा उसको लूट रहा है,
देश फँस गया अंधियारों में, भूले हम गौतम-गांधी को,
काले कर्मों में फँसकर हम, भूले उजली परिपाटी को ।

बारम्बार हमें समझाते लोग यहाँ,
जैसे बहे बयार आप वैसे बहिए ।