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मृग-मरीचिका / शरद चन्द्र गौड़
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मैं मृग-मरीचिका
प्यासे को पानी का आभास दिलाती
मैं पानी का मोल बताती
मैं पानी को अनमोल बनाती
मैं मृग-मरीचिका
रेगिस्तान में उठती
गरम हवा की लहर हूँ मै
मानों शांत पानी में
किसी नें कंकड़
मार दिया हो
मैं पानी की एक-एक
बूँद को तरसते
मरूस्थल की पहचान हूँ
कभी मेरी छाती पर
मारता था हिलोरे
समन्दर का पानी
उसी पानी की आस में हूँ मैं
मैं मीठे पानी के
स्त्रोत का
रास्ता जानती हूँ
मैं हारे-थके प्यासे
काफ़िले में
जीने की आस बँधाती हूँ
अनमोल पानी का
झरना नहीं हूँ मै
कुँए और सरोवर का
मीठा पानी भी नहीं हूँ मैं
मैनें तो पानी को
कभी छुआ तक नहीं
मुझे तो पानी कभी दिखा ही नहीं
मैं तो बस
प्यासे की प्यास हूँ
मैं तो बस
पानी का अहसास हूँ