भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
थारै मिलणै रो मतळब / मदन गोपाल लढ़ा
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:07, 26 नवम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मदन गोपाल लढ़ा |संग्रह=म्हारी पाँती री चितावां…)
थारै पैलै दरसाव
म्हारै हिवड़ै
जलमी एक चावना
कींकर ई तो हुवै
थारै सूं ओळखाणं ।
कैड़ी मुलाकात है आ
ओ म्हारी जोगण।
ज्यूं-ज्यूं
म्हैं थनै जाणुं
खुदोखुद नै बिसरावूं
अंतस री अंधेरी सुरंग में उतरूं।
सांची बता !
थारै मिलण रो मतळब
कठैई म्हारो गमणो तो कोनी ?