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ओळूं-समंदर / मदन गोपाल लढ़ा
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सांचाणी
घणो चोखो लागतो
भायलां भेळा
थारै सूं हर रा
बिड़द-बखाण करतां
सारी-सारी रात।
आ बात न्यारी है
कै आज
मूंढै लावणो ई
पाप बरोबर समझूं
बां कथावां नैं
पण म्हारो मनड़ो
हाल तांई नीं भूल्यो
उण ओळू-समंदर में
गोता खावणै रो सुख !