Last modified on 28 नवम्बर 2010, at 22:42

दुखता रहता है अब जीवन / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:42, 28 नवम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" |संग्रह=आराधना / सूर…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दुखता रहता है अब जीवन;
पतझड़ का जैसा वन-उपवन ।

        झर-झर कर जितने पत्र नवल
        कर गए रिक्त तनु का तरुदल,
       हैं चिह्न शेष केवल सम्बल,
       जिनसे लहराया था कानन ।

डालियाँ बहुत-सी सूख गईं,
उनकी न पत्रता हुई नई,
आधे से ज़्यादा घटा विटप,
बीज जो चला है ज्यों क्षण-क्षण ।

        यह वायु वसन्ती आई है
        कोयल कुछ क्षण कुछ गाई है,
       स्वर में क्या भरी बुढ़ाई है,
       दोनों ढलते जाते उन्मन ।