दुखता रहता है अब जीवन;
पतझड़ का जैसा वन-उपवन ।
झर-झर कर जितने पत्र नवल
कर गए रिक्त तनु का तरुदल,
हैं चिह्न शेष केवल सम्बल,
जिनसे लहराया था कानन ।
डालियाँ बहुत-सी सूख गईं,
उनकी न पत्रता हुई नई,
आधे से ज़्यादा घटा विटप,
बीज जो चला है ज्यों क्षण-क्षण ।
यह वायु वसन्ती आई है
कोयल कुछ क्षण कुछ गाई है,
स्वर में क्या भरी बुढ़ाई है,
दोनों ढलते जाते उन्मन ।