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बस्ती यहाँ कहाँ पिछडी है / लाला जगदलपुरी

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दहकन का अहसास कराता, चंदन कितना बदल गया है
मेरा चेहरा मुझे डराता, दरपन कितना बदल गया है।

आँखों ही आँखों में, सूख गयी हरियाली अंतर्मन की;
कौन करे विश्वास कि मेरा, सावन कितना बदल गया है।

पाँवों के नीचे से खिसक खिसक जाता सा बात बात में;
मेरे तुलसी के बिरवे का, आँगन कितना बदल गया है।

भाग रहे हैं लोग मृत्यु के, पीछे पीछे बिना बुलाये;
जिजीविषा से अलग-थलग यह, जीवन कितना बदल गया है।

प्रोत्साहन की नयी दिशा में, देख रहा हूँ, सोच रहा हूँ;
दुर्जनता की पीठ ठोंकता, सज्जन कितना बदल गया है।



साहित्य शिल्पी www.sahityashilpi.com के बस्तर के 'वरिष्ठतम साहित्यकार' की रचनाओं को अंतरजाल पर प्रस्तुत करने के प्रयास के अंतर्गत संग्रहित।