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सुर्ख़ शोलों में ढल गया आख़िर / कुमार अनिल
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सुर्ख़ शोलों में ढल गया आख़िर
दोस्त तू भी बदल गया आख़िर
क्या हुआ सख़्त थी अगर ठोकर
गिरते-गिरते संभल गया आख़िर
मुद्दतों बाद कुछ हँसा था मै
ये भी दुनिया को खल गया आख़िर
मै तो सूरज था, मेरे चेहरे पर
कौन कालिख ये मल गया आख़िर
क्या कहा, तू भी चाहता है मुझे
जादू तुझ पे भी चल गया आख़िर
मै तो मुट्ठी में बंद था तेरी
रेत-सा क्यों फिसल गया आख़िर
फिर अँधेरे को सौंप कर बस्ती
एक दिन और ढल गया आख़िर