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छेकड़लै दिन / मदन गोपाल लढ़ा
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टाबर हूं म्है
पण अणजाण कोनी
थारी दीठ सूं।
टाबर ई बांच लेवै
भावां-अभावां रा हरफ।
लखदाद है थारी दीठ नै
थारै अर म्हारै बिचाळै
इण आंतरै नै
कायम राखण री चावना
थारै उणियारै माथै ओढ़्योड़ो
अमूंझणी रो ओढ़णो
म्हारै सूं कोनी छानो।
थे कोनी देवो
म्हारै वजूद नै मानता
टाळा लेवो
आमीं-सामीं सूं
फगत मून रै मारफत
चावो संवाद।
ठमो भाईजी !
हणै ई चेत्यो हूं म्हैं
कलम सांभी है हाथ में
अब तो सरू हुई है कविता।
जीवण रै महासमर में
छेकड़लै दिन रो सांच ईं
काढै़ला हार-जीत।