भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
साँझ फागुन की / रामानुज त्रिपाठी
Kavita Kosh से
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
फिर कहीं मधुमास की पदचाप सुन
डाल मेंहदी की लजीली हो गई!
दूर तक अमराइयों, वनबीथियों में
लगी संदल हवा चुपके पाँव रखने
रात-दिन फिर कान आहट पर लगाए
लगा महुआ गंध की बोली परखने
दिवस मादक होश खोए लग रहे
साँझ फागुन की नशीली हो गई!
हँसी शाखों पर कुँआरी मंजरी
फिर कहीं टेसू के सुलगे अंग-अंग
लौट कर परदेश से चुपचाप फिर
बस गया कुसुमी लताओं पर अनंग
चुप खड़ी सरसों की गोरी सी हथेली
डूब कर हल्दी में पीली हो गई!
फिर उड़ी रह-रह के आँगन में अबीर
फिर झड़े दहलीज पर मादक गुलाल
छोड़ चन्दन-वन चली सपनों के गाँव
गंध कुंकुम के गले में बाँह डाल
और होने के लिए रंगों से लथपथ
रेशमी चूनर हठीली हो गई!