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ढोलक लेकर आए बादल / बुलाकी दास बावरा

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फिर ग्रीष्म का ताप मिटाने,

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|रचनाकार= बुलाकी दास बावरा
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ढोलक लेकर आए बादल ।



पीपल की खोहों के आगे,

सारंग ने सरगम छेड़ी है

पौध उठाने हरियाली की,

नभ से फिर उतराए बादल।

फिर ग्रीष्म का ताप मिटाने,

ढोलक लेकर आए बादल।



निर्वासित हो गई आँधियाँ,

पुरवाई जेसे हो दुल्हन,

इन्द्र धनुष की माला पहने,

साजों पर ठुमकाए बादल।

फिर ग्रीष्म का ताप मिटाने

ढोलक लेकर आए बादल।



तपन-घुटन व उमस मिटी रे,

दूर निराशा के साए हैं,

फिर नदियों की दौड़ कराने,

दौड़े-दौड़े आए बादल।

फिर ग्रीष्म का ताप मिटाने

ढोलक लेकर आए बादल।



घर में बाहर ठौर-ठौर पर,

अक्सों के उजले मेलों में,

फिर अपना सर्वस्व लुटाने,

त्यागी बन कर आए बादल।

फिर ग्रीष्म का ताप मिटाने,

ढोलक लेकर आए बादल।



बन्द हुए अध्याय विरह के,

धरती के अधरों पर नग्मे,

किसी यौवना की दृष्टि में,

मादकता फैलाए बादल।

फिर ग्रीष्म का ताप मिटाने,

ढोलक लेकर आए बादल।



नमस्कार इनके गुस्से को,

सैलाब 'बावरा' सह्य नहीं,

गाँव-शहर-खलिहान उजाड़े,

घहर-घहर घहराए बादल।

फिर ग्रीष्म का ताप मिटाने

ढोलक लेकर आए बादल।