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दीपक जलाना एक बार / बुलाकी दास बावरा

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प्रिय ! मिलन की राह में, दीपक जलाना एक बार ।
चाँद घन घूंघट उठा कर, झांक लेना एक बार ।।

विस्मृति में भूलती क्यों, चाँदनी पद्चाप को ?
क्या सहे उत्तप्त वसुधा, तिमिर घन के ताप को ?
रागिनी से दूर सुरभि, भूल कर आलाप को ?
अगर झुरने जाय तो, रोक लेना एक बार ।
प्रिय ! मिलन की राह में, दीपक जलाना एक बार

कब तक चलेगा वेदना में साधना का ये सफर ?
क्या कभी जीवन में आएगा हर्ष का भी पहर ?
ना कभी इस सूने तट को, भाएगी कोई लहर ?
खो रहा हो रव कहीं, चोप लेना एक बार ।
प्रिय ! मिलन की राह में, दीपक जलाना एक बार ।

वो समां बतियाता था, ये समां तो मौन है
कौन जाने इस जगत का प्रीति वाहक कौन है
तल्खियां ही तल्खियां है शेष सब कुछ गौण है
फिर भी कुछ जो है उसे ही आंक लेना एक बार ।
प्रिय ! मिलन की राह में, दीपक जलाना एक बार ।


प्रिय ! मिलन की राह में, दीपक जलाना एक बार ।
चाँद घन घूंघट उठा कर, झांक लेना एक बार ।।