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पहाड़ी का शोकगीत / अनिरुद्ध नीरव

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चार कंधों पर न जब वह उठ सकी
वहीं कर दी गई अन्तिम क्रिया
मेरी बस्ती की पहाड़ी का
     यही है वाकिया

मुझे कोई सूचना
या पत्र ही कोना कटा
मिल न पाया
अन्यथा मैं भी पहुँचता
आँख में लेकर
     कोई नकली घटा

सुना है कि
लड़ गई वह आदमी से
एक मन्दिर साक्ष्य में
     हँसता रहा

हाँ लड़ी वह ख़ूब
लेकिन ढाल से
ढाल क्या
थीं ढाल बस हरियालियाँ
थे हज़ारों हाथ
लेकिन फूल वाले
काश की तलवार होती डालियाँ

चंद चिड़ियाएँ
फकत अब पत्थरों पर
गा रही हैं --
शहादत का मर्सिया

लाश लाबारिस को अब
ढँकने लगे हैं
छप्पर औ छत के कफ़न
          पैबन्द वाले
आदमी इतना कृतघ्न नहीं
कि उसको भूल ही जाए
कि जिसको वह मार डाले

उधर लेकिन
वक़्त के इजलास में
है खड़ी फ़रियाद लेकर
     बुज़ुबाँ नंगी हवा ।