तरुण / विजय कुमार पंत
तरुण मैं
बोझिल अहसासों
की नीरवता
चमकाने की कोशिश करता
सुबह –सुबह
जंगल के बीचों -बीच बनी
ओंस से तृप्त पगडण्डी
पर तेज़ क़दमों के साथ
सांसो को
सावधानी से छोड़ते हुए
धीरे -धीरे
गिन गिन कर
ऐसा लगता है
पांव के पंजे
दौड़ा रहे है सारे शरीर को
चुस्त रखने के लिए
और पागलपन में
विलुप्त होते मस्तिष्क में
जबरदस्ती डाला जा रहा
हो ठंडा जमा हुआ
रक्त …..
छलछला उठे स्वेत बिन्दुओं जैसा
अब पंजे भी दुखने लगे है
जाते समय के साथ
मेरा भार ढो -ढो कर
जैसे वो भी तुम्हारे
साथ हो गए है
इस अनकही अनासक्ति में…..
मेरे दुखों से बिलकुल बेपरवाह
लेकिन ……
मैं आदि और अंत के बीच में
स्वयं को खोजता हुआ
तड़पता रहता हूँ
बीते वक़्त का
तरुण होकर
यादों के नीरव वन में …….
वृक्षों पर ढूँढता हूँ
एक अटके हुए सूरज
और
लटके हुए बादलों
की गोद में खेलते चाँद को ……
ताकि जिया जा सके …
पर अक्सर
सूखे हुए पेड़
याद दिलाते है
निष्ठुर अंत की ………
और मैं कोशिश करता हूँ
एक गंभीर मुस्कराहट
से चहरे की झुर्रियों
को तरुनाई देने की …..
तुम्हारी आँखों
के विस्तीर्ण सागर तट पर …….
विडंबनाओ के पत्थरों की
शब्दहीन, ठोकर
गिरा देती है
ओंस से भीगी पगडण्डी पर
मुंह के बल धूल को चुमते हुए
तब समझ आता है
आदि और अंत या
तरुनाई
सब यहीं मिल जाते है धूल बनकर
विवशता या मनुष्य की भूल बनकर