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डरते हैं ईश्वर भी / प्रतिभा शतपथी
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साठ आलोक वर्ष में क़दम रख
तलाशती फिर रही है राह
चौराहे पर
इतने बड़े महादेश के दक्षिण में
शोर-शराबे से भरा मणियों का बाज़ार
पृथ्वी को बेच-बाच कर खा जाने को तैयार लोग
चले जा रहे हैं राह बदल
आ-जा रहे हैं
दिन भर में लाखों सौदागर
वहीं एक औरत परेशान है
कहाँ है उसका घर
राह ढूँढती
कुछ ही हाथ की दूरी पर
समुद्र में टूटती निलिमा
प्रबल-लताओं से धड़कता है जीवन
संसार के सुख-दुख झेलकर
लौट जाएगी वह औरत, कहती है
कहीं तो होगा उसका एक घर
है सत्य की कसौटी
उसमें अपनी साँसों को उसने
छिन-छिन परखा है
पगली है या कोई वेश्या
या सिद्ध देवी
न जाने कौन है वह औरत
उसे राह बताने में
खड़े होने में उसके पास
डरते हैं ईश्वर भी ।