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निर्धन का मन / केदारनाथ अग्रवाल

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निर्धन का मन
तब सूना था
अब सूना है
वहाँ न गाई
कल की कोकिल
तरुणाई की
गंध सुगंधित
अमराई की

वहाँ न
वीणा बजी सुहाई
शब्द-शब्द की
सधे हाथ की
वहाँ न
झूली-नाची कजली
गंध मोह की

वहाँ न चमकी
चित्त चीरती
चंचल चपला
वहाँ न
बैठी
भूमि-भामिनी
हरित अंचला

वहाँ न
फूले फूल
कंज के
वहाँ न प्रकटी
शरद शारदा
खेत खेत की

रचनाकाल: २३-०३-१९७३