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अंतहीन जतरा / सोहन प्रसाद चौबे
Kavita Kosh से
ना समुन्दर में
आशा रोॅ नैया पर बैठलोॅ
बिन खेवैय्या बहलोॅ जाय छी
एक अन्तहीन जतरा करने जाय छी !
नैं कोय ठौर, नै कोय ठिकानोॅ
नै मंजिल, नै किनारा
लहरोॅ पर चढ़लोेॅ-उतरलोॅ जाय छी !
आगू अन्हरिया, पीछू अन्हरिया
अगल-बगल आजू-बाजू नै देखवैय्या !
बिन पतियाल नाव,
मझधार में फंसलोॅ जाय छी !
एक ज्योति कण ज्योतिपुंज में मिलैनें
ओकरे पतियाल थामी, नैया बचैंनें
जिनगी के लक्ष्य बुझी,
हुन्नें चल्लोॅ जाय छी !