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अंतिम बरस / नीलेश रघुवंशी

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बीसवीं सदी ख़त्म होने में
बचे हैं अन्तिम तीन बरस।

उदासी और अंधकार से भरा
घोषित किया हमने अपनी सदी को।

हम उन चमकीली सुबहों का ज़िक्र नहीं करते
उन शामों का भी नहीं
गुज़ारीं जो हमने इसी शताब्दी में।
बहुत कुछ खोया हमने
प्रेम खोया खोया विश्वास
सड़के रहीं वीरान।

क्या भरोसा
इक्कीसवीं सदी में पहाड़ों पर दर्ज़ हो प्रेम
जो नहीं खोज सके हम बीसवीं सदी में
ज़रूरी नहीं
ढूँढ़ ही निकालेंगे उसे नई सदी में।

शताब्दी के अन्तिम बरसों में
हो जाए वह सब कुछ
हो नहीं सका जो गुज़रे बरसों में
अंतिम बरस
बना दें इस सदी को
उजाले और उल्लास से भरा।

बेचैनी से भरी है बीसवीं सई
हाहाकार मचा है उसके भीतर
पूरी पृथ्वी में किसी के पास
नहीं बचा इतना धीरज
हँसकर विदा करें उसे।

सहम रही है इक्कीसवीं सदी
पिछली सदी
धैर्य से पार नहीं कर पा रही तीन बरस
कैसे पार कर पाएगी वह सौ बरस।

दोस्तो
बेहतर होगा
बचे अंतिम बरसों को बनाएँ हम
चमकदार और ख़ुशी से बना
गाएँ पहले विदा गीत
गाते हुए फिर मंगल गीत
प्रवेश करें नई सदी में
जहाँ चमकीली सुबह होगी
हमारी प्रतीक्षा में।