भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अंतिम विदा की तरह / विनय सौरभ
Kavita Kosh से
{{KKCatK avita}}
कभी एक शाम हुआ करती थी।
कभी एक इंतज़ार हुआ करता था
एक रस्ता मेरे पैरों से बँधा था
और एक कुर्सी मेरी राह देखती थी
उस घर के सारे बरतन मुझसे बातें करते थे
एक पेड़ छाँह लिए डोलता रहता था
एक जोड़ी आँखें मेरा लौटना
देखती थीं दूर तक
अब सब अंतिम विदा की तरह
शामिल हैं इस जीवन में