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अकथ / प्रकाश
Kavita Kosh से
मेरे पास कहने को कुछ नहीं था
सो जन्मों से कहता जाता था
कहने को होता
तो कहकर चुक जाता
कहने को कुछ नहीं था
सो वाणी डोलती न थी
केवल कुछ तरल-सा हुआ करता था
कहने को कुछ नहीं था
सुबह कोहरा रहता था
समय चुपचाप बहता था
मैं हर बार एक हिलते पौधे से
एक अँजुरी फूल चुनकर
धारा में डाल देता था
और चुपचाप प्रणाम करता था!