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अकरामण नो दलदल / उपेंद्र अणु
Kavita Kosh से
आजकल मारे चारे बाजू
उगी आव्यं है धूतारं थूवेर
ज्यंतक म्हने याद है
म्हैं रोप्य हतं
भाई चारो, सदाचार नै मनखपणां
न छाटेलां गुलाब
आज काल
अणा मोसम नै हूं थई ग्यूं है
क्यं चालीर्यू है
हौर नू वावा जोडू
कारेक तपी जाये है
हेत्तु वातावरण
धर्मान्धता नी धधकती लाय ऊं
आकास मय गरजी-वरजी नै
आवै है रांत सट्ट वादरं
वरसावें हैं लुई भेनू पाणी।
हर दाणं वजू
नदीये नै वेरं मय पूर आवे है
पण नैं बईरयू है वण में निर्मल जल
बल्की वई रूप्यो है
हिंसा, हूग, नै पाशविकता नो
पमरतो थको गादो
जेनाऊ फेलाई रई हैं
महामारीये/बीमारिये
ईर्ष्या नी
अण विश्वास नी
द्वेष नी,
नै बणी जाये है पूरी जमीं
पीड़ ऊं उपज्या थका
अकरामण नो
दलदल
नै म्हूं
निरन्तर
वणा मय उतरतो जाइ रया हूं,
उण्डो-उण्डो अजी उण्डो।