अकारण दुख नहीं झलक रहा / शहंशाह आलम
अकारण दुख नहीं झलक रहा
पुल के इस ओर और उस तरफ
मालूम नहीं किस तरह की गांठ लगाई गई है
एक-दूसरे से मिलने के लिए
भीड़ इकट्ठी नहीं हो रही कहीं पर
ताकि संवाद विस्तार पा सके
फैल सके दसों दिशाओं में सार्थक
एकांत में पड़ा और खड़ा पेड़
एक अनोखे दर्द में मुब्तला हो रहा है
टोली-टोली सांप टोली-टोली डायनासॉर
जंगल से हमारे घर का रुख कर रहे हैं
प्रेम नहीं किया जा रहा इस छोर से उस छोर
प्यार में झगड़ा भी नहीं किया जा रहा इन दिनों
पुरातत्व विभाग की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा कि
क्यों नदी में तैरते हैं शव और सिर्फ शव
फिर भी घृणा नहीं कर रही है पृथ्वी
कहती है कि लिखते रहो हंसी के शब्द
हो सके तो रचो रोज़ एक कविता युवा हत्याओं के विरुद्ध
जैसे गर्भिणी स्त्रियां बुनती हैं स्वेटर
अनदेखे उजाले बटोरती हैं अंधेरे गर्भ से
तुम भी बटोरो इस पूरे युग से
इन दिनों दिल धड़कता है बुरी तरह
इन दिनों उदास-उदास-सी आती है सुबह
समझाना चाहता है मछलीमार कि
अजायब से भरी होती हैं यात्राएं
हमारे पिता तक कहते हैं
अकारण दुख नहीं झलक रहा
नित्य-प्रति खाया जा रहा है धोखा
बेवकूफ समझा और कहा जा रहा है हमें
खुशियों की रात की आरजूएं हमसे छीन ली गई हैं
वेश्यालयों से रोज़ निर्मम आवाज़ें उठती हैं
और पीछा करती हैं रास्ता भटके हुओं का
और हम आ जाते हैं दीमकों की चपेट में
मचलते हैं हमारे शत्रु हमारे हत्यारे कि
अभी उन्हीं के दिन हैं रातें भी उन्हीं की हैं।