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अकाल / सुरेश विमल

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1
निष्प्राण नदी के
शाश्वत सहचर
कंकालों में
तब्दील हो गए... !

छितरा गई
बहुत घनी वह
छाया
देखते ही देखते
बरगद
करील हो गए... ।

2
गेंदे गुलाब की नहीं
चंद ठूंठों की
रह गई है अब
बगिया...

ऐसा दिया धोखा
बादल की जात ने
पैबंदों के नाम हुई
सरजो की अंगिया...!

3
रेत के धोरों से
गुज़रते हुए
पानी की तलाश में...!

युग से भी
बड़ा हुआ बरस
बूंदों वाली
एक बदली की
आस में...!

4
भूख-प्यास से
अशक्त हुए बैल की
बोटियाँ उखाड़ लीं
गिद्धों की जमात ने।

दिन दहाड़े
होने लगा यह भी
कि छीन लीं रोटियाँ
इस हाथ की
उस हाथ ने।


5
बियाबान में खड़े
घेर-घुमेर
एक पीपल के तले
प्याऊ हुआ करती थी
कभी...!

अब-
सायं सायं के बीच
सुनाई देती है वहाँ
थके और प्यासे
मुसाफ़िरों की आहें
दबी-दबी.।।

6
हंसुली बेचकर
घरवालों की
शहर को निकल पड़ा
पोटली बाँधे
हरसी... !

यही त्रासदी है
इन दिनों
इस गाँव की
ताले लगे घर
और मुरझाई हुई
तुलसी... !