अकीका / अशोक कुमार पाण्डेय
मैं बेहद परेशान हूँ इन दिनों
पलट डाले आलमारी में सजे सारे शब्दकोश
कितनी ही ग़ज़लों के नीचे दिए शब्दार्थ
गूगल की उस सर्वज्ञानी बार को खंगाला कितनी ही बार
अगल-बगल कितने ही लोगों से
पूछ लिया बातों ही बातों में
पर यह शब्द है कि सुलझता ही नहीं
कितना सामान्य-सा तो यह आमंत्रण
बस जहाँ होते हैं मंत्र वहाँ शायद अरबी में लिखा कुछ
और भी सब वैसे ही जैसे होता है अकसर
नीचे की पंक्तियों में झलक रहे कुछ व्यंजन लजीज
पर इन जाने-पहचाने शब्दों के बीच वह शब्द एक ‘अबूझ’
कई दिनों बाद आज इतने याद आए बाबा
कहीं किसी विस्मृत से कोने में रखी उनकी डायरी
पाँच बेटों और पन्द्रह नाती-नतनियों में
कोई नहीं जानता वह भाषा
धार्मिक ग्रंथों-सी रखी कहीं धूल खाती अनछुई
होते तो पूछ ही लेता कि क्या बला होता है यह प्रसंग
निकाह और खतने के अलावा
हम तो जानते ही नहीं उनकी कोई रस्म
बस, इतना कि ईद में मिलती हैं सिवईंयाँ और बकरीद में गोश्त शानदार
इसके आगे तो सोचा ही नहीं कभी
लौट आए हर बार बस बैठकों के
जाने कितने ऐसे रहस्य उन पर्दों के पार
अभी भी तो चिन्ता यही कि
न जाने यह अवसर ख़ुशी का कि दुःख का
पता नहीं कहना होगा-- मुबारक या बस बैठ जाना होगा चुपचाप !