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अकेला मानव आज खड़ा है / हरिवंशराय बच्चन

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अकेला मानव आज खड़ा है!

दूर हटा स्वर्गों की माया,
स्वर्गाधिप के कर की छाया,
सूने नभ, कठोर पृथ्वी का ले आधार अड़ा है!
अकेला मानव आज खड़ा है!

धर्मों-संस्थाओं के बन्धन
तोड़ बना है वह विमुक्त-मन,
संवेदना-स्नेह-संबल भी खोना उसे पड़ा है!
अकेला मानव आज खड़ा है!

जब तक हार मानकर अपने
टेक नहीं देता वह घुटने,
तब तक निश्चय महाद्रोह का झंड़ा सुदृढ़ गड़ा है!
अकेला मानव आज खड़ा है!